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ऋतुओं के राजा फागुन के स्वागत में एक कविता – क्योंकि फागुन नीचें उतर आया है

सत्यम्
सत्यम्
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क्योंकि फागुन नीचे उतर आया है

बहुत से पहाड़ आ जातें हैं

इन दिनों

बहुत नीचें

कुछ अधिक नम्र, प्रसन्नचित्त

और समन्वय भरे हो जाते हैं वे

क्योंकि फागुन नीचें उतर आया है.

सूरज

कुछ हो चलता है

अधिक अधिक सा उजला

घटाटोपों से

संघर्ष कर वह निकल आता है बाहर

विजयी भाव में वह देता है अधिक उजास

क्योकि

फागुन नीचे उतर आया है.

पृथ्वी देनें लगती है कुछ नया

उसकी

गोद होनें लगती है, हरी

भरनें लगता है उसमें सौन्दर्य

कुछ-कुछ

लज्जा की लाली के साथ

उसका मुख होनें लगता है रक्ताभ

क्योंकि

फागुन नीचे उतर आया है.

रातों में आवारगी करते तारे

अब

होनें लगते हैं कतारबद्ध

गढ़ने लगते हैं वे

राशियों के प्रतीकों को

कहीं कन्या, मीन तो कहीं मकर, मेष को

और उकेरनें लगतें हैं धरती पर मुहूर्त

क्योंकि

फागुन नीचें उतर आया है.

मध्य रात्रियों में चंद्रमा

अब नहीं रहता स्वायत्त-स्वच्छंद

अब वह निभानें को

तत्पर-तत्पर सा रहता है

चेहरें पर आस बैठाए रखता है

और

लजानें-शर्मानें भी लगता है

क्योंकि

फागुन नीचें उतर आया है.

सबसे अधिक तो

सुबहें

मुखर – निखर जाती हैं

महुए की मदमाती गंध से

सुबहें बाहर ही नहीं हो पाती हैं

और

कहीं पेड़ों की छांह तले

आते आते

फिर ठहर जाती है

क्योंकि

फागुन नीचे उतर आया है.

हाटों में अब सजेंगी

कई चूड़ियाँ, कानों के बूंदे, नई बिंदियाँ

और पोलके लुगड़े

उनकें आस पास

कहीं लेनें न लेनें की ऊहापोह

तो कहीं

ले सकनें का सुख और

न ले सकनें का का भाव करेगा सतत परिक्रमा अब

क्योंकि

फागुन नीचें उतर आया है.

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