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युएनओ में नमो- कश्मीर-बाढ़ की पीड़ा और शरीफ का पेट दर्द

सत्यम्
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युएनओ में नमो-

कश्मीर-बाढ़ की पीड़ा और शरीफ का पेट दर्द

न्यूयार्क में चल रही संयुक्त राष्ट्र की महासभा में जबकि समूचा विश्व समुदाय शांति और विकास के चिंतन मंथन में व्यस्त हैं वही सदा की भांति पाकिस्तान नेतृत्व अपनी उलझाऊ भाषा और मुद्दों के साथ विश्व शांति समुदाय को लक्ष्य से भटकानें के प्रयास में है. महासभा को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने एक बार फिर उनका बेसुरा, कुत्सित कश्मीर राग अलापा शरीफ ने कश्मीर मसले के लिए वहां जनमत संग्रह कराए जाने की मांग की है. इसी क्रम में हमारें प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपनें भाषण में कश्मीर का विस्तार से उल्लेख किया किन्तु उन्होंने बड़ी ही संवेदनशीलता से कश्मीर में आई बाढ़ हेतु चले बचाव अभियान का हाल बताया और इस बचाव अभियान की भावी योजनाओं का भी उल्लेख किया. मोदी जी ने विश्व समुदाय को गौरवपूर्वक यह भी बताया कि उन्होंने पाक कब्जे वाले कश्मीर में भी बाढ़ राहत अभियान चलानें का विनम्र प्रस्ताव मानवीयता के दृष्टिकोण से रखा था. यह विडंबना ही है और विश्व समुदाय की सहनशीलता की अति “कि पाक को संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर विषय उठानें की छूट अभी भी मिल रही है.” भारतीय जम्मू कश्मीर और पाक कब्जें वाले कश्मीर के विकास और नागरिक अधिकारों की तुलना करें तो पाक कब्जें वाले कश्मीर में स्थिति नारकीय दिखलाई पड़ती है. कश्मीर की बाढ़ से मूंह छुपाते और वहां के नागरिकों को पानी और उसके बाद महामारी में मरनें को मजबूर छोड़ने वाले नवाज शरीफ को संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का उल्लेख करनें से पहले शर्म आनी चाहिए थी. भारतीय गणराज्य वाले कश्मीर और पाक के अवैध कब्जे वाले कश्मीर में बाढ़ राहत के अभियानों में अंतर देखें तो पता चलेगा कि इस भयानकतम प्राकृतिक आपदा में फंसे पाकी कश्मीर में पाक प्रशासन कितना अक्षम और असंवेदनशील सिद्ध हुआ है. यह भी देखना चाहिए कि जब कश्मीर की जनता बाढ़ और उसके बाद के बाढ़ जनित दुष्परिणामों को झेल रही है तब उसके कष्टों पर चिंतन के बजाय पाकिस्तानी नवाज शरीफ किसी भी अवसर पर शरारती और कुत्सित राजनीति करनें से नहीं चूकतें हैं. नवाज ने मक्कारी पूर्वक भारत यह आरोप लगाया कि विदेश सचिव स्तर की वार्ता को रद्द कर भारत ने मुद्दों के समाधान करने का एक अवसर को गंवा दिया है. किन्तु विश्व देख चुका है कि एक लम्बें और सुदीर्घ धोखे से बहरी विदेश नीति वाले पाकिस्तान में अभी हाल ही में एक बार फिर किस प्रकार भारतयात्रा से लौटनें के तुरंत बाद कि प्रकार सीमान्त झडपों और और आतंकी गतिविधियों को किस प्रकार बढ़ावा दिया है.

विश्व समुदाय को यह स्मरण रखना चाहिए कि 26/11 के आरोपियों पर कार्यवाही के स्थान पर उन्हें आरोपों से बच निकलनें के अवसर देनें वाला पाक प्रशासन अब तक इस विषय में अपनें स्टैंड को बदल नहीं पाया है.

पाक द्वारा बार-बार वैश्विक मंचों पर जिस प्रकार कश्मीर का उल्लेख किया जाता है उस सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र निष्पक्ष विश्लेषण करें तो इस विषय का बार बार उठाना ही बंद हो जाएगा. भारतीय विदेश विभाग अब तक इस विषय में कोई सख्त और ठोस पहल नहीं कर पाया है. पिछले एक दशक के लचर भारतीय प्रस्तुतीकरण को भी इसका उत्तरदायी माना जाना चाहिए. विश्व समुदाय के समक्ष भारतीय विदेशमंत्री या विदेश सचिव को तब मौन रहनें को मजबूर होना पड़ता था जब भारत के अन्दर से ही निर्वाचित प्रतिनिधि कश्मीर विलय पर प्रश्न उठानें लगते थे! विश्व मंचों पर पाकिस्तान को कश्मीर का प्रश्न उठानें से और दुनिया को उसे सुननें से तब तक नहीं रोक पायेंगे जब तक हमारें संवैधानिक पदों पर आसीन उमर अब्दुल्ला और फारूख अब्दुल्ला जैसे लोगों का यह कहना नहीं रुकेगा कि है कि विशेष दर्जे वाले जम्मू-कश्मीर का भारत से संपूर्ण विलय नहीं हुआ है. जिस कश्मीर के विलय के सम्बंध में भारत का राष्ट्रीय पक्ष सदा से यह रहा है कि कश्मीर का भारत में विलय अपरिवर्तनीय और अटल है और यह भी रहा है कि जम्मू कश्मीर भारतीय गणराज्य का अविभाज्य अंग है उस कश्मीर के सन्दर्भ में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना कि चार शर्तो के साथ राज्य का देश से विलय जरूर हुआ था, लेकिन अन्य प्रदेशों की तरह वह पूर्ण रूप से देश से नहीं जुड़ पाया है. कांग्रेसी समर्थन की बैसाखियों पर सरकार चला रहे उमर अब्दुल्ला जिस प्रकार की बात करतें है वैसे ही स्वर अलगाव वादी कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेता भी बोलते रहे हैं!! अब इस स्थिति में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और कश्मीरी अलगाव वादियों में में क्या अंतर है यह खोजना मुश्किल प्रतीत होता है.
पिछले एक दशक की विकलांग भारतीय वैश्विक राजनीति से ऊंचे उठकर नरेन्द्र मोदी को यह स्टैंड अब लेना होगा कि अमेरिका कश्मीर विषय को सुननें से ही निषेध कर दे. अमेरिका और पाकिस्तान के बीच की आपसी समझ कि “पाकिस्तान कश्मीर पर मध्यस्थता की मांग करता रहेगा और अमेरिकी प्रशासन मना करते रहकर भारत की ओर ऊंची दृष्टि से और अनुकम्पा भाव से देखता रहेगा और इस प्रहसन के बीच एशिया में सैन्य जमावट के अमेरिकी स्वप्न आकार लेतें रहेंगे?” इस दोमुंही अमेरिकी नीति के दाह संस्कार का दायित्व अब नमो का ही है और उन्हें लोकतंत्र ने इसकी उल्लेखनीय शक्ति भी दी है. स्पष्ट है कि पहले नरेन्द्र मोदी को देश के अन्दर कश्मीर विषय पर देशज भावना के विपरीत बोलनें और कृत्य करनें वालों से निपटना होगा तब ही वे वैश्विक मंचों पर कश्मीर विषय को दृढ़ता से रख पायेंगे.

यद्दपि नरेन्द्र मोदी के प्रम बननें के बाद किसी भारत में किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति ने भारत विरोधी भावना को व्यक्त नहीं किया है तथापि इन तथाकथित कश्मीरी अलगाववादियों के मूंह से देश-राग गायन करानें का बड़ा काम अभी नरेन्द्र मोदी के जिम्में बाकी है. पाकिस्तान बोले तो हम मानते है कि दुश्मन बोल रहा है किन्तु कश्मीर के निर्वाचित और कांग्रेस के समर्थन से सरकार चला रहे उमर अब्दुल्ला भारत विरोधी भाषा बोलें तो भारतीय जनमानस के जख्म हरे हो जातें हैं क्योकि जम्मू-कश्मीर का “सशर्त विलय” नहीं बल्कि “पूर्ण विलय” हुआ है. जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था और 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया कर इस विलय की वैधानिक आधारशिला रख दी गई थी. यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों के विलय पत्र से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी. तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर दी थी जिसे देश आज भी भुगत रहा है. कश्मीर के संदर्भ में नेहरू की दूसरी बड़ी भूल 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान करवाना है, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ था. तब भारतीय संविधान के जनक और तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर और संविधान सभा के कई सदस्यों ने ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी घोर असहमति जताई थी किन्तु इस सब के बाद भी नेहरू जी ने जिद्द करके इस अनुक्छेद 370 को अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया था.

अब समय आ गया है कि नमो कश्मीर  विषय पर देश के अन्दर वैसी ही आवाज सहन करें जैसी कि कश्मीर विलय की भावना थी और 370  की वैधानिक बहानेंबाजी को भी समाप्त करनें की ओर कदम उठायें ताकि युएनो और अन्य वैश्विक मंचों पर कश्मीर विषय रखनें के जो बहानें और मूंह छूपानें के जो अवसर अलगाववादियों और पाकिस्तान को उपलब्ध हैं वे समाप्त हो सकें.

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