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चीन बनाम राष्ट्रवादी नमो और कारोबारी मोदीजी

सत्यम्
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चीन बनाम राष्ट्रवादी नमो और कारोबारी मोदीजी
विश्व प्रसिद्द राजनीति शास्त्री रूसों के “सामान्य इक्छा या लोकेछा के सिद्धांत” को भारतीय राजनीतिज्ञों के सुलभ संदर्भों में व्यक्त करें तो कहेंगे कि “एक राष्ट्राध्यक्ष का आचरण और स्वभाव स्वयं अपना नहीं बल्कि उस राष्ट्र और उसकी परिस्थितियों का होता है”. इस रूप में यह कहा जा सकता है कि हमारें प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी चीन के समक्ष अपनें स्वाभाविक आचरण में नही आ पायें हैं. नेहरु से लेकर मनमोहन तक की भूलों को ढोते हुए नमो का उदात्त राष्ट्रवादी रूप दब गया और कारोबारी नरेन्द्र मोदी का अधिक उभार चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग की भारत यात्रा के दौरान दिखा. बाडी लेंग्वेज के विशेषज्ञ कितना ही कहें किन्तु नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग के प्रवास के दौरान बंधे, सकुचाये से नजर आये वैसा उनका स्वभाव-मानस है नही!! और न ही उनकी कार्यशैली ऐसी है!! सीमाओं की चिंता का उनका स्वभाव और राष्ट्रवाद से लबालब उनका आत्मविश्वास चीनी राष्ट्रपति से भेंट-चर्चाओं के दौरान जैसे नजराया और चुप्पा सा रहा!! यद्दपि इन परिस्थितियों में नमो के पास कोई दुसरा मार्ग भी नहीं था तथापि चुनौतियों को अवसरों में बदलनें के अभ्यस्त नमो इस अवसर को चुकते से दिखे!! वैदेशिक मामलों के जानकार जानते और मानतें हैं कि 1962 के बाद की भारतीय विदेश नीति, नेहरु की भूलें और पिछले एक दशक का मनमोहन सिंह के पंगु और दिशाहीन कार्यकाल के चलते नरेन्द्र मोदी चीन के सामनें अपना स्वाभाविक प्रदर्शन दिखानें की स्थिति में अभी एक दो वर्ष तो नहीं ही आ सकतें हैं. भारत-चीन सीमा पर शी के आनें के ठीक पहले और बाद चीनी सेनाओं की घुसपैठ के आदतन और योजनाबद्ध कुप्रयास को नमो नें न समझा हो और इस प्रतिक्रिया व्यक्त करनें का उनका मन न हुआ हो ऐसा हो ही नहीं सकता! नमो संकोच में रहे किन्तु शी किसी अवसर को नहीं चूकें उन्होंने हाल ही के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के वियेतनाम में किये तेल करार तक पर आपत्ति सशब्द प्रस्तुत कर दी.
यद्दपि भारत चीन विवाद के बिंदु इतनें अधिक और इतनें गहरें हो गए हैं कि एक दो वार्ताओं और यात्राओं से उनका सुलझ पाना भी संभव नहीं है तथापि नरेन्द्र मोदी से अधिक आशाओं के चलतें बहुत से विषयों का अनसुलझा रहना संभवतः सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को भी दुखी करता रहेगा. भारत-चीन विवादों का 1962 के बाद का इतिहास भारत की गलतियों से भरा पड़ा है. नेहरू दौर से शुरू हुई इन गलतियों के बाद चीन सतत भारत पर हावी ही होता रहा है, किन्तु पिछला मनमोहन के शासन का एक दशक तो जैसे चीन द्वारा भारत पर आक्रामकता का ही दशक रहा! हम भारतीय झटका खा जातें हैं यह जानकार कि पिछले एक दशक में मनमोहन सिंह ने चीन के साथ 15 वार्ताएं की हैं और प्रत्येक वार्ता के बाद हम दो कदम पीछे ही सरकें हैं. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल के एक व्यक्तव्य को हम प्रतिनिधि रूप में देखें तो समझ सकतें हैं कि यूपीए सरकार चीन मामलों में कितनी तदर्थ और सतही थी; उन्होंने चीन के भारतीय क्षेत्रों पर कब्जा करनें पर कहा था कि “चीन का भारतीय क्षेत्र पर हुआ कब्जा सीमित और स्थानीय समस्या है.” स्वाभाविक है कि ममो की सतत हुई गलतियाँ नमो को दीर्घ समय तक झेलनी-भुगतनी पड़ेंगी.
कारोबारी नरेन्द्र मोदी का तो अच्छा प्रदर्शन जिनफिंग के दो दिवसीय प्रवास में दिख गया जो कि संभवतः राष्ट्रवादी नरेन्द्र मोदी की रणनीतिक दिशा है, और यह सही भी है. कहना न होगा कि राजनय की दृष्टि से नरेन्द्र मोदी चीन के सामनें इससे अच्छा प्रदर्शन भी कर सकतें थे यदि वे अपनें स्वाभाविक आचरण में ही रहते!! हाँ वर्तमान भारत की आर्थिक स्थिति और दशकों से चली आ रही सतत भूलों की खाई को पाटनें में यह योद्धा आंशिक सफल तो कहा ही जा सकता है.
चीन की सेना और शासनाध्यक्षों के बीच की गुत्थी को भारतीय राजनयिकों को समझना होगा. शी की यात्रा के ठीक पहले सीमा पर चीनी दबाव बढ़ना, उनकें भारत प्रवेश होते से दबाव कम होना और फिर लौटते से बढ़ जाना चीन के स्वभाव और शासन-सेना के बीच तारतम्य को प्रगट करता है या असामंजस्य को यह जांचना होगा. यदि राजनयिक मोर्चें पर भारत-चीन किसी भी प्रकार की गतिविधि करतें हैं तो ठीक उसी समय चीनी सेना भारत के प्रति अपनें सुस्पष्ट और दीर्घकालिक एजेंडे को किसी न किसी प्रकार सीमा अतिक्रमण से प्रस्तुत कर देती है. वस्तुतः चीनी राष्ट्राध्यक्ष अपनें सेनाओं के साथ वैधानिक ढांचें में इस प्रकार की स्थिति में खड़े हैं कि वे चाह कर भी सेना को आदेश देनें या पीछे हटो कहनें की स्थिति में नहीं होतें हैं. एक अलग और विशिष्ट प्रकार का शासन-सेना सम्बन्ध चीन में चलता है जिससे इस प्रकार की स्थितियां अक्सर ही निर्मित होती रहती हैं. पिछले दशकों के अनेकों उदाहरणों के साथ साथ नरेन्द्र मोदी शासन काल का ही गत जुलाई माह का अनुभाव हमारें समक्ष है जब पंचशील की साठवीं वर्षगाँठ के समय चीन एक ओर हमारें उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का चीन में स्वागत कर रहा था और ठीक उसी समय चीनी सेना ऐसा नक्शा जारी कर रही थी जिसमें अरुणाचल और जम्मू कश्मीर के बड़े भारतीय क्षेत्र को चीन का हिस्सा बताया गया था. भारतीय उपराष्ट्रपति के इस चीन प्रवास के दौरान ही लद्दाख की पेंगोग झील पर भी कब्जे का प्रयास किया था. वस्तुतः चीन का यह स्वभाव ही रहा है हर समय भारतीय क्षेत्रों पर अतिक्रमण और कब्जें की ये घटनाएँ चीन के दशकों से चले आ रहे उस चीनी अभियान का ही हिस्सा है जिसमें चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किलोमीटर और जम्मू कश्मीर के अक्साई चीन के 32 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके पर अपना दावा प्रकट करते रहा है. पिछले वर्षों में किये गए चीनी दुस्साहस के कई प्रकरण जिनफिंग के इस दौरे में नरेन्द्र मोदी के गले में फंसे-फंसे ही रह गएँ हैं जिनका बड़ा मजबूत और तगड़ा प्रगटीकरण होना आवश्यक है. लेह-लद्दाख के चुमर इलाके में घुसकर चीनी सेना ने भारतीय सेना के लगाए सिक्यूरिटी कैमरों को भी तोड़ना, चीन द्वारा भारत के बनाए कई अस्थाई ढांचों को कई कई बार गिराना, सतत सीमाई अतिक्रमण, ग्वादर बंदरगाह, सीमा रेखा का निर्धारण, तिब्बत, अनुचित वीजा नीति, कश्मीर में दखल, दौलत बेग ओल्डी सेक्टर के चुमर इलाके में घुसकर अस्थाई कैंप स्थापित करना और बोर्ड लगाना कि “ये चीन का इलाका है और आप चीन में हैं” आदि आदि कई घटनाएं ऐसी हैं जिन्हें संपुष्ट और सुदीर्घ स्वर में व्यक्त करना समय की आवश्यकता है.
तिब्बत के विषय में भी जैसा तदर्थवाद नेहरु के 1962 के बाद से चला आ रहा है उसे विराम देंना होगा. नेहरू ने 1954 में चीन के साथ किए पंचशील समझौते में तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया था. हमारें सभी पड़ोसियों जैसे पाकिस्तान बर्मा, श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल को चीन द्वारा किसी न किसी प्रकार अपनें प्रभाव और दबाव क्षेत्र में लिया जा चुका है इसकी चिंता भी वार्ताओं में प्रकट नहीं हो पाई है. तमाम कारोबारी समझौतों के बीच अक्साई चीन, मैकमोहन रेखा, भारतीय नक्शों में अरुणाचल को दिखानें पर चीन की आपत्तियां, चीन द्वारा ब्रहमपुत्र में परमाणु कचरे को बहाना आदि विषय अनसुलझें ही रह गएँ हैं. मूल विरोधाभास भी बना ही रहा कि बीजिंग भारत-चीन सीमा को 2000 किमी का कहता है जबकि हमारी दिल्ली के अनुसार यह 4000 किमी है. नमो के जिस रूप पर भारतीय मोहित हैं उसमें मोह का 60% तत्व राष्ट्रवादी है और 40% तत्व कारोबारी और विकासवादी है. पिछलें दशकों की भारतीय भूलों और तदर्थवाद के चलते भारतीय जनमानस से नमो को यह स्वाभाविक छूट मिल सकती है कि वें प्रारम्भिक दौर में चीन के साथ सधे-सधे से चलें किन्तु देर-अबेर उन्हें अपना राष्ट्रवादी रूप प्रकट करके चीन को ये सभी विषय स्पष्ट करनें ही होंगे. भारतीय जनता तो उनसें परिणाम चाहती है चाहे वे आँखों में आँखें डालकर सम्मोहित करके लायें या आँखें दिखा-दिखा कर!!

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