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रिजर्व बैंक भी चिंतित है देश में स्थिर और मजबूत सरकार के लिए

सत्यम्
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रिजर्व बैंक चिंतित: लोस चुनाव में देश कैसे बचें “वोट फार अस्थिरता से”

भारत की मुखिया बैंकिंग संस्था रिजर्व बैक आफ इण्डिया ने पिछले सप्ताह देश को चेताते हुए कहा है कि आगामी चुनाव के बाद यदि देश में अस्थिर सरकार बनी तो देश की पहले से डाँवाडोल चल रही अर्थव्यवस्था संकटों के भंवर में फंस सकती है. रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट 2013 में स्पष्टतः कहा है कि ‘आगामी आम चुनाव भी अनिश्चितता का एक संभावित सोत है, एक स्थिर नयी सरकार का गठन अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होगा.’ आर बी आई के गवर्नर ने इस रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि भारतीय वित्तीय प्रणाली को लेकर निवेशकों का विश्वास पहले से क्षीण है और राजनैतिक अस्थिरता की स्थितियां निर्मित होनें से निवेशकों का विश्वास और अधिक कमजोर होगा.रिजर्व बैंक की यह शंका निर्मूल नहीं है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत कमज़ोर हो गई है और चालू खाते का घाटा निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. देश के पास विदेशी मुद्रा कम आ रही है और उससे भुगतान ज़्यादा करना पड़ रहा है. सकल घरेलू उत्पाद के पांच फ़ीसदी के समीप पहुँच गए घाटे से वाणिज्यिक घाटा भी बढ़ गया है व आयात बढ़ गए और निर्यात कम हो रहे हैं. इन परिस्थितियों में देश के मतदाताओं को रिजर्व बैंक गवर्नर के सन्देश में अन्तर्निहित तत्व और मूल्य को त्वरित व से मान्य भाव से सुनना और समझना चाहिए. चौतरफा दुष्चक्र में फंसी हमारी कमजोर सप्रंग सरकार कुछ कर नहीं पा रही है. पिछले लगभग सात वर्षों से सतत पिछड़ती हमारी अर्थव्यवस्था के चलते देश के इतिहास में पहली बार भारतीय उद्योगपति, पूंजीपति देश से बाहर निवेश करनें की आत्मघाती प्रवृत्तियों में पड़ गएँ हैं फलस्वरूप हमारा सकल घरेलू उत्पाद कमतर होते हुए 2004-8 के 9 फ़ीसदी की दर की तुलना में वर्तमान के 4.5-5 प्रतिशत पर पहुँच गया है.

रिजर्व बैंक के गवर्नर की रिपोर्ट में परम्परागत संदेशों के विपरीत जिस प्रकार का स्पष्ट राजनैतिक संदेश दिया गया है वह आवश्यक और समयानुकूल प्रतीत होता है जब हम देखतें हैं कि अर्थव्यवस्था की इन स्थितियों से बेखबर, पिछलें दिनों पूरा देश दिल्ली की आप सरकार के बनने न बननें और फिर बननें के बाद उसके काम काज के तरीकों को देखनें और उसकी समीक्षा में बेतरह डूबा रहा. स्वाभाविक था मीडिया जो दिखा और पढ़ा रहा था पूरा देश उसे ही देख पढ़ रहा था. देश ने केजरीवाल की पार्टी आप के माध्यम से जे पी और वी पी सिंग के बाद एक नए प्रकार का राजनैतिक रसायन अरविन्द केजरीवाल में देखा और उस रसायन को परखनें के लिए उसनें पूरे मन से न सही आधे मन से ही सही पर वोट तो किया ही था. केजरीवाल का प्रारम्भिक राजनैतिक एटीट्युड अतिशय प्रतिक्रियात्मक था और दिल्ली चुनाव बाद भी उसका आचरण वैसा ही रहा किन्तु देश के मीडिया का आचरण केजरीवाल के प्रति अतिशय सदाशयता पूर्ण रहा और उसनें उनकी भरपूर सहायता की. आप पार्टी के प्रति देश की जनता के शिशु सदृश प्रेमभाव को मीडिया की व्यावसायिक बुद्धि ने भली भांति समझा और फिर उसनें अपने चिर-परिचित स्वभाव के अनुरूप ही इस नवजात किन्तु विजयी शिशु “आप” को अपनें अपार प्रेम के भाव में ऐसा बहाया कि इस बहाव में देश में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर चल रही सभी प्रासंगिक और आवश्यक चर्चाएँ और बहसें भी इसी बहाव में कही दूर बहती चली गई हैं. माना कि राजधानी दिल्ली के घटनाक्रम का अपना देशव्यापी महत्व है और वह सभी को समभाव से स्वीकार्य भी है किन्तु दिल्ली की स्थानीय राजनीति के कारण पुरे देश की राजनीति के महत्वपूर्ण विषयों,चर्चाओं और मुद्दों की अनदेखी करना या उन्हें उपेक्षित भाव से देखनें का भाव कदाचित हमें इस महत्वपूर्ण समय पर भारी पड़ सकता है जबकि हमें आनें वाली छेमाही में अगलें पांच सालों तक स्थिरता देनें वाली केन्द्रीय सरकार को चुनने का चिंतन, मनन और निर्णय करना है.

वर्तमान में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रानिक हो या सोशल मीडिया हो वह महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और उसे (मीडिया को) भूलना नहीं चाहिए कि वह जनता के लिए लगभग एक मुक्त राजनैतिक शिक्षण संस्थान की तरह होता है. इस समय सम्पूर्ण मीडिया को चाहिए था कि वह दिल्ली प्रांत के चुनावों के परिणामों के विषय में सम्पूर्ण देश को जागृत करता और इस प्रकार की त्रिशंकु सरकार के परिणामों से देश को परिचित करा देता. कहना न होगा कि देश का मीडिया केवल बिकाऊ आकर्षणों के प्रसारण के मोह के चलते अपनें दायित्वों को सतत विस्मृत कर रहा है. अपनें दिल्ली चुनाव परिणामों के एक प्रयोगात्मक पक्ष को लेकर मीडिया ने जिस प्रकार का अति उत्साह दिखाया और त्रिशंकु परिणामों को लेकर जिस प्रकार की चुप्पी दर्शाई उसे अपनी भूमिका को न निभानें वाला आचरण ही कहा जा सकता है. दिल्ली की जनता ने जिस प्रकार का मतदान किया है उससे एक बात तो स्पष्ट है कि उसनें त्रिशंकु विधानसभा के लिए नहीं बल्कि एक मजबूत और उत्साही सरकार के लिए मतदान किया था; इस चुनाव से एक उत्साही सरकार का गठन तो हुआ किन्तु यह अल्पमत, अल्पजीवी और अल्प निर्णय क्षमता वाली सरकार ही रहेगी यह स्पष्ट हो गया है. देश में जो मुद्दें, बहसें और विषय लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बोले, सुनें और विश्लेषण किये जानें चाहिए थे उनमें दिल्ली चुनाव के बाद एक मुद्दा और जुड़ जाना चाहिए था कि दिल्ली के जैसे त्रिशंकु परिणाम आनें वाली लोकसभा के ना हो. आश्चर्य जनक ढंग से मीडिया ने और इस देश राजनैतिक विश्लेषकों ने दिल्ली के इन परिणामों के सन्दर्भ में इस बात का विश्लेषण करनें का प्रयास नहीं किया कि वे किस प्रकार के चलन, प्रवृत्तियाँ और ट्रेंड्स हैं जिनकें चलते दिल्ली की जनता ने न चाहते हुए भी एक अस्थिर और त्रिशंकु सरकार को जन्म दे दिया है.

वर्ष 2014 में होनें वाले केन्द्रीय चुनाव हमारी देश की स्वतन्त्रता के बाद से होते आ रहे लोकसभा चुनावों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनाव हैं. महत्वपूर्ण इस दृष्टि से कि देश पिछले लगभग चार दशकों की अस्थिर केंद्र सरकारों के बाद देश आवश्यक रूप से एक मजबूत, निर्णायक और सक्षम किन्तु जन-केन्द्रित नेतृत्व चाहता है. यह विषय और अधिक महत्वपूर्ण और समीचीन इस लिए भी हो जाता है कि लगभग पांच प्रतिशत पर आ चुकी हमारी विकास दर, रक्षा मोर्चों पर भारतीय विफलता, कम होता सैन्य स्वाभिमान और आत्मविश्वास, वैश्विक अर्थ व्यवस्था में हमारा सतत पिछड़ना, वैदेशिक विषयों पर हमारी निरंतर विफलताएं, पड़ोसी देशों का हम पर हावी होना, घरेलु उत्पादन का प्रतिशत और ट्रेंड दोनों बिगड़ना, रोजगार में गिरावट, शिक्षा क्षेत्र का अस्थिर होना, राज्यों के साथ केंद्र सरकार के बिगड़ते सम्बंध, विदेशी मुद्रा कोष का लगातार सिकुड़ना और भारतीय कृषि उत्पादन में कमी और इसके उत्पादन ट्रेंड्स के बिगड़ने आदि घटनाओं ने हमारें देश को एक संवेदनशील स्थिति में ला खड़ा किया और यहाँ से आगे का रास्ता देश को केवल किसी मजबूत नेतृत्व और सक्षम-निर्णायक सरकार से ही मिल सकता है. अतः अब आवश्यक हो गया है कि देश के मतदाता न केवल रिजर्व बैंक की चिंता को ध्यान में रखते हुए आर्थिक विषयों हेतु और समग्र और सामरिक राष्ट्रीय हितों को देखते हुए एक निर्णायक,स्थिर,सक्षम,टिकाऊ सरकार का निर्माण करे जिसका चरित्र अन्तराष्ट्रीय मामलों की गहरी समझ वाला होनें के साथ साथ घोर राष्ट्रवादी, संवेदनशील और जुझारू भी हो और आर्थिक-ओद्योगिक मामलों की गहरी समझ रखकर अन्तराष्ट्रीय मंचों पर भारत का सक्षम नेतृत्व करनें वाली भी.

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