सत्यम्
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“गुलाब भरा आँगन”
सहजता सिमटता हवा का झोंका
सहज होनें का
करता था भरपूर प्रयास.
बांवरा सा
हवा का वह झोंका
गुलाबों भरे आँगन से
चुरा लेता था बहुत सी गंध
और
उसे तान लेता था स्वयं पर.
गुलाब वहां ठिठक जाते थे
हवा के ऐसे
अजब से स्पर्श से
किन्तु हो जाते थे कितनें ही विनम्र
मर्म स्पर्शी
और ह्रदय को छू लेनें को आतुर.
हवा का वह झोंका
आज फिर
यहीं कहीं हैं
गुलाब भरे आँगन के आस पास
गुलाबों की गंध को चुरानें के लिए.
अंतर था तो बस इतना
कि
आज हवा का झोंका
गंध को स्वयं पर तान कर
चला जाना चाहता था दूर कहीं
प्रणव और कल्पनातीत होकर
स्पर्शों के आकर्षण को भूल जाना चाहता था वह.
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