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नदी का परिचय
गहराती हुई नदी में
बन रहे थे पानी के बहुत से व्यूह
नदी के किनारों की मासूमियत
पड़ी हुई थी छिटकी बिटकी यहाँ वहां
जहां बहुत से केकड़े चले आते थे धुप सेकनें.
किनारों पर अब भी नहीं होता था
व्यूहों का या गहराईयों का भान
पर नदी थी कि हर पल अपना परिचय देना भी चाहती थी
और दुसरे ही पल
सभी को जान भी लेना चाहती थी.
नदी से अपरिचित रहना
और उसके उथले किनारों से लेकर
असीम गहराइयों तक की संवेदित प्रज्ञा को जानना
अब असंभव था.
संभव था तो केवल इतना कि नदी के आँचल में छूप जाना
और उसे ही पकड़कर गहराइयों को चूम आना.
तरलता की अगुह्य गहराइयों की सीमाओं से लेकर
ठोस हो जानें की हदों तक
सभी कुछ तो
ऐसा ही था जैसे कोई गीत कुह्कुहा लिया हो
बहुत गहरें घने वन में भीतर कहीं बैठी किसी कोयल ने
जिसमें न शब्द विशब्द होते है न राग विराग
न जिसमें न्यास विन्यास न कोई नियम विनियम
केवल और केवल स्वछंदता.
किन्तु नदी के किनारों पर नहीं मिलता ऐसा परिचय
वहां नदी की नन्ही नन्ही लहरों पर
सदा लिखा होता है एक नाम
जिसे हम पढ़ कर
नदी को पढ़ लेनें के भ्रम विभ्रम में जीते मरते रहते हैं.
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