- 169 Posts
- 41 Comments
शब्दों पर क्यों नहीं उगाए पुष्पों के पौधे?
मेरा रोम रोम
ही तो कह रहा था
तुम्हीं ने नहीं सुना.
न सुना और न महसूसा
कि
कहीं कुछ घट रहा है पल प्रति पल
दिन प्रति दिन
हर समय हर कहीं
और जो घट रहा है
उसे नहीं देखा जा सकता
सीधी नंगी आँखों से.
उसे तो देखना होगा कहीं
प्रतिबिम्बों में जो मिट गए हैं उभरने के पूर्व ही.
नासूर से शब्दों में
पीड़ा नहीं हो रही थी.
शब्दों को दर्द का संभवतः रूपांतरण करते आ गया था
आ गया था उन्हें वह सभी कुछ कहते
जिसे कहने को शब्द न पूरे पड़ते थे
न ही अर्थों को उठाना पड़ता था
भावार्थों का कुछ अतिरिक्त बोझ.
व्याकरणों की सीमाओं में
और उनके अनुशासनों में भला मैं कैसे रहता?
फिर तुम्हीं कहो जो तुमने सोचा वो मैं कैसे कहता?
कहता तो क्यों?
और गाया तो क्यों नहीं?
बेरंगे से गीतों का मैंने
क्यों नहीं किया श्रृंगार?
शब्दों पर क्यों नहीं उगाए पुष्पों के पौधे?
पता नहीं! पता करनें की चाहत भी नहीं!!
Read Comments